Tuesday, 19 December 2017

आत्मबोध ,स्व स्वरूपबोध अथवा मोक्ष कि स्थिति क्या है?


आत्मबोध अथवा स्व स्वरूप स्थिति क्या है?
समाधान - यह जीव सांसारिक प्राणी पदार्थों को पाकर उनमें मोह करता है। लेकिन प्रत्यक्ष में देखने पर पता चलता है कि ये सारे प्राणी पदार्थ एक न एक दिन इससे बिछुड जाते है।इसी प्रकार पूर्व में भोगे हुए भोगों का संस्कार इस जीव के अंतःकरण में जमा रहता है और जब जीव को उनका स्मरण होता है तो उन्हें पुनः भोगने की इच्छा करता है परन्तु उनकी पूर्ति न होने पर दुखी होता है। जब जीव को यह बोध हो जाता है कि संसार के समस्त प्राणी पदार्थ मेरे नहीं है, सारे भोग ऐश्वर्य भी एक दिन छूट जायेगे और मात्र में असंग रह जाउंगा, इस स्थिति में अगर यह जीव समस्त प्राणी पदार्थों एवं भोगों से विरक्त होकर अपने आप में स्थित हो जाता है, तो इस स्थिति को स्व स्वरूप स्थिति कहते है। इस स्थिति में यह जीव समस्त कल्पनाओं और विषय वासनाओं से मुक्त होकर सहज स्थिति में आ जाता है।
सद्गुरू कबीर रमेणी संख्या-51में स्व स्वरूप स्थिति के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि -
जाकर नाम अकहुआ रे भाई,
ताकर काह रमैणी गाई।
कहैं तात्पर्य एक ऐसा,
जस पंथी चढि बोहित वैसा।
है कछु रहनि गहनि की बाता,
बैठा रहे चला पुनिः जाता।
रहै बदन नहीं स्वांग सुभाऊ,
मन स्थिर नहीं बोले काहू।
तन राता मन जात है, मन राता तन जाय।
तन मन एकै होय रहे, तब हंस कबीर कहाय।। 51।।
भावानुवाद-
जाकर नाम कथ्यो नहीं जाई।
रंग न रूप वर्ण नहीं जाके, ताकर काह रमैणी गाई।। टेक।।
जैसे पंथी चढे नाव में, खेवन हार न पाई।
बैठा रहै नाव के भीतर, ना कहीं आव न जाई।। 1।।
परमतत्व का भेद निराला, गुण गाये न पाई।
है कछु रहनि गहनि की बाता, सद्गुरू भेद लखाई।। 2।।
जैसी कहै करे पुनिः वैसी, तन मन ऐक रहाई।
"तारा चंद " मिटे दुख सारे, भवसागर तरि जाई।। 3।।
भावार्थ -
हे भाई जिसका नाम ही कथन में नहीं आता है, उसका क्या गुण गाते हो। अज्ञात की प्रार्थना करना तो वैसा औ है, जैसे कोई राहगीर नाव में तो बैठ जाये मगर उसे यह पता ही नहीं हो कि यह नाव कंहा जायेगी और उसका खेवनहार कौन है। वह उसमें बैठा रहे और पुनः उतर कर अपनी राह चल दे।
स्वरूप स्थिति या आत्म शान्ति तो एक रहनि और गहनि की बात है। अगर आचरण शुद्ध है तो जीवन में व्याधियां पैदा ही नहीं होंगी और अगर होगी भी तो स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
जहां तन की आशक्ति होती है वहां मन और जहां मन की आशक्ति होती है वहां तन चला जाता है अर्थात् सारे कर्म तन मन के द्वारा संपन्न होते हैं
जब तन और मन दोनों स्थिर हो जायेगे तो आवागमन अपने आप मिट जायेगा और तब ही यह जीव हंस दशा को प्राप्त होगा।
साहेब बंदगी।

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