सुन्नत
नमाज,पूजा, जनेऊ धारण, देवी देवता में विश्वास आदि को निरर्थक बताकर कहीं कबीर साहेब भोतिक वाद की पुष्टि तो नहीं कर रहे है?
समाधान:- भौतिकवाद जिसे चार्वाक का सिद्धान्त भी कहते हैं, उसमें भोतिक जड तत्वों के अतिरिक्त अन्य किसी शक्ति को नहीं माना गया हैं।भौतिकवाद के अनुसार जीवन मात्र जड तत्वों का संयोग है और कुछ नहीं।जिस प्रकार चकमक और पथरी के घर्षण से आग उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पंच तत्वों के विशेष संयोग से जीव की उत्पत्ति होती है, और तत्वों का संयोग समाप्त होते ही जीव भी समाप्त हो जाता है। उसे न तो पुन: शरीर धारण करना है और न ही मरना है।जब तक जियो मौज मस्ति करो, उधार लेकर घी पिओ।यही है भौतिकवाद।
अब तक के शंका समाधान में जो विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, क्या उनमें कहीं भी जीव अथवा आत्मा का निषेध किया गया है? फिर आपको किस आधार पर यह शंका हुई की सद्गुरू कबीर भौतिकवाद का निरूपण कर रहे हैं।
वस्तुत: आध्यात्मिक आध्यात्मिक क्षैत्र में कोई भी विचार या सिद्धान्त मानने से पूर्व उसे पूर्ण विवेक के साथ सत्य की कसौटी पर कसा जानि चाहिये और जब तक खरा नहीं उतरे, ऊसे स्वीकार नहीं करना चाहिये। इसीलिय सद्गुरू कबीर कहतै हैं कि परखो परखो, बिना परखे किसी की बात को स्वीकार न करो।रमैणी संख्या-40 में सद्गुरू कबीर कहते है की-
आदम आदि सुधि नहीं पाई, मां मां हवा कहां से आई।
तब नहीं होते तुरुक औ हिन्दू, गाय के रुधिर पिता के बिन्दू।
तब नहीं होते गाय कसाई, तब बिसमिल्ला किन फुरमाई।
तब नहीं होते कुल और जाति, दोजख बिहिस्त कौन उत्पाति।
मन मसले की सुधि नहिं जाना, मति भुलान दुई दीन बखाना।
संजोगे का गुण रवे, बिजोगे का गुण जाय।
जिभ्या स्वार्थ कारणे,नर कीन्हे बहुत ऊपाय।।40।।
भावानुवाद:-
नर तूने कैसा मता उपाया।
न्यारे न्यारे ईश उपाये, राम रहीम कहाया।।टेक।।
एक बूंद से सृष्टि रची है, दीन दुई क्यूं गाया।
मां मां हव्वा कहां से आई, आदम जान न पाया।।1।।
हिन्दू तुरुक नहीं जब होते, जाति कुल न बनाया।
गाय कसाई दोऊ नहीं होते, बिस्समिल किन फुरमाया।।2।।
मन मसले की सुधि नहीं पाई, नाहक द्वंद मचाया।
"तारा चंद" निज स्वार्थ कारण, जग झगडा फैलाया।।3।।
भावार्थ;- आदम को स्वयम् अपने जन्म का पता नहीं था और न ही वह जान पाया कि उसकी पत्नि हव्वा कहां से आई? सृष्टि के आदि में जब न तो हिन्दू थे न मुसलमान, और न रज थी न वीर्य।गाय भी नहीं थी, तब बिस्मिल्ला कहकर किसने जीव वध की आज्ञा दी होगी।
उस समय न तो कुल थे और न ही वर्ण व्यवस्था, फिर नरक स्वर्ग
का निर्धारण किसने किया।वस्तुत: लोग अपनी कल्पित बातों को स्वयं नहीं जान पाये।इसलिए उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी और वे दो दीन की कल्पना कर बैठे।
भौतिक वाद भी ऐसे ही भ्रमित लोगों का ज्ञान है, जो यह मानते है की आत्मा जीव मात्र पंच तत्वों का संयोग है और उसका वियोग होंने पर जीव गुण समाप्त हो जाता है।इसलिय जीव नाम कोई वस्तु नहीं है।मानव ने अपनी जिभ्या के स्वाद हेतु कई प्रकार की कल्पनाएं कर रखी है।
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