Wednesday, 13 December 2017

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप



साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।

जाके हृदया साँच है, ताके हृदया आप ।।


सत्य पालन के समान तपस्या नहीं है और झूठ के समान पाप नहीं है । जिसके हृदय में सत्य की प्रतिष्ठा है, उसके हृदय में व्यक्ति का स्वराज्य है ।।

लम्बा-लम्बा उपवास, पंचाग्नितापन, जलशयन, मौनव्रत, नंगा रहना, वन में कठिनाई का जीवन बिताना, इसी प्रकार अन्य अनेक तपस्याएं हैं, परन्तु सत्य के पालन के समान दूसरी तपस्या नहीं है ।

सत्यभावना, सत्यसिद्धांत, सत्यवचन तथा सत्याचरण पालन करने में चाहे जितनी कठिनाइयां पड़ें, उन्हें सहर्ष सहना ही तपस्या है । भय और प्रलोभन में पड़कर जो सत्य को छोड़ देता है वह कहीं का भी नहीं रह जाता । अनेक लोगों को देखा जाता है कि उन्हें लम्बी बीमारियों में घोरातिघोर कष्ट उठाना पड़ता है, फिर यदि सत्य के लिए कष्ट उठाना पड़े तो क्या हर्ज है । मौत सभी देहधारियों की निश्चित है और यदि सत्य के पालन में मौत हो तो यह कितना ऊँचा काम है ! सत्य के समान न संसार के माने गये सुख हैं, न पद-प्रतिष्ठा हैं और न अन्य कुछ । यदि सत्य छोड़ देना पड़े तो शरीर भी रखकर किस काम का ! अतएव सच्चाई में रहना ही सबसे बड़ी तपस्या है । सत्यपरायण व्यक्ति बाहर से भले ही अकिंचन दिखे, परन्तु भीतर से वही संपन्न होता है । सत्यपरायण व्यक्ति जीवन में सच्चा सुख पाता है । जो व्यक्ति सत्य में रहता है वह कोई पाप नहीं कर सकता, फिर उसके समान तपस्वी और सफल जीवन कौन होगा !

"झूठ बराबर पाप" झूठ के बराबर पाप नहीं होता । जो झूठ बोलता है वह कौन-सा पाप नहीं कर सकता ! जो व्यक्ति जितना ही झूठ का आश्रय लेता है वह उतना ही परमार्थ से तो दूर हो ही जाता है, उसका व्यवहार भी थोड़े दिनों में भ्रष्ट हो जाता है । झूठा आदमी सबका अविश्वासपात्र हो जाता है । झूठाई के बल पर कोई तत्काल धन-मकान को चमका सकता है, परन्तु वह भीतर से मलिन हो जाता है और उसकी बाहरी चमक-दमक भी थोड़े दिनों में बुझ जाती है । झुठाई के रास्ते पर चलने का मतलब है दूसरों को पीड़ा देना, और दूसरों को पीड़ा देकर कोई स्वयं पीड़ा से मुक्त नहीं हो सकता ।

"जाके हृदया साँच है, ताके हृदया आप ।" यह बड़ी वजनदार बात है । जिसके हृदय में सत्य है उसके हृदय में अपने आप की प्रतिष्ठा है । शिष्य ने पूछा की सत्य क्या है ? गुरु ने कहा कि व्यक्ति अपने आप ही परम सत्य है । व्यक्ति का बाहरी खोल तो असत्य है, अर्थात् शरीर नाशवान है, परन्तु शरीर के भीतर विद्दमान चेतन परम सत्य है । जो सत्य को खोजता है वह चेतन जीव ही परम सत्य है । जो व्यक्ति अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान पा गया है और जीवन के सारे व्यवहार सत्यमय बरत रहा है वह अपने आप कृतकृत्य होता है । अपने स्वरूप का अज्ञान तथा असत्य में मोह होने से ही सारे दुख थे । जब निजस्वरूप का बोध हो गया और असत्य मायाजाल से मोह टूट गया तब जीव अपने सत्य स्वरूप चेतन में प्रतिष्ठित हो गया । यही जीवन की सर्वोच्च दशा है । यही "जाके हृदया साँच है, ताके हृदया आप" का भाव है । जब जीव असत्य से सर्वथा हट गया, तब स्वयं सत्यस्वरूप रह गया ।

(बीजक व्याख्या, साखी - 343)

#सद्गुरु_श्री_कबीर_साहेब


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