Wednesday, 3 January 2018

गुरु मोहिं सजीवन मूर दई :- धनि धरमदास साहेब


गुरु मोहिं सजीवन मूर दई ।।टेक।।

कान लागी गुरु दीक्षा दिन्हीं ।
जनम-जनम को मोल लई।।1।।

दिन दिन अवगुण छुटन लागे ।
बाढन लागी प्रीति नई ।।2।।

मानिक शुभ से मानिक उपजै।
हीरा हंश से भेंट भई ।।3।।

धर्मदास बिनबै करजोरी ।
 दिल की दुर्मति दूर भई।।4।।

भावार्थ :-
गुरु मोहिं सजीवन मूर दई ।।टेक।।
अर्थ:-सदगुरु ने मुझे संजीवनी बूटी दी हैं अनंत आत्मिक जीवन का बोध दिया है ।।टेक।।

कान लागी गुरु दीक्षा दिन्हीं ।
जनम-जनम को मोल लई।।1।।
अर्थ:- गुरु दीक्षा में सद्गुरु ने मेरे कान में आत्मबोध का अमृत उडेल दिया और उन्होंने मुझे जीवन भर के लिए खरीद लिया।।1।।

दिन दिन अवगुण छुटन लागे ।
बाढन लागी प्रीति नई ।।2।।
 अर्थ:-सद्गुरु की शरण में आते ही मेरे जीवन के दुर्गुण दिन-ब-दिन नष्ट होने लगे और सद्गुरु संत लोगों तथा आत्मा उद्धार के लिए मेरे मन में नया-नया प्रेम उत्साह बढ़ने लगा ।।2।।

मानिक शुभ से मानिक उपजै।
हीरा हंश से भेंट भई ।।3।।
अर्थ:-सदगुण रूपी रत्न से अन्य सद्गुण रत्न उत्पन्न होने लगे आत्म ज्ञान रुपी हिरा देने वाले विवेकी सद्गुरु से भेंट हो गई।।3।।

धर्मदास बिनबै करजोरी ।
 दिल की दुर्मति दूर भई।।4।।
 अर्थ:-धनी धर्मदास साहेब करबद्ध होकर वन्दगी करते हुए कहते हैं कि हे सद्गुरु आपके द्वारा आत्मबोध ,सत्पुरूष का बोध तथा सत्य से मिलने से हृदय की दुरबुद्धी  दूर हो गई।।4।।

विशेष:- सदगुरु ने मुझे दीक्षा दी सद्ज्ञान  का बोध दिया और वह मानो जीवन भर के लिए मुझे खरीद लिए।

 ''जन्म जन्म को मोल लई ''

यह शब्द बताते हैं कि कैसा कोमल स्वच्छ सत्पात्र हृदय था श्री धनी धर्मदास साहेब का अद्भुत अद्वितीय ।

''दीन दीन अओगुण छुटन लागे।
 बाढन लागी प्रीति नई ।।

कितना उत्तम और व्यवहारिक अनुभव है उनका और हम लोगों के लिए कितना प्रेरणाप्रद है ।

सद्गुरु शरण का अंतिम फल है हृदय की कुमति का नष्ट हो जाना जिसकी दुर्बुद्धि मिट गई वह सदैव के लिए सुखी हो गया।

Monday, 1 January 2018

गुरु मोहिं खूब निहाल कियो। धनि धरमदास साहेब वाणी


गुरु मोहिं खूब निहाल कियो। टेक।

 बूरत जात रहे भवसागर पकड़ी के बांहि लियो।।1।।

 14 लोक बसे जम चोदह उन्हों से छोरि लियो।।2।।

तिनूका तोरि दिलों परवाना माथे हाथं  दियो।।3।।

नाम सुना दियो कंठी माला, माथे तिलक दियो।।4।।

 धर्मदास बिनवै कर जोरी ,पूरा लोक दियो।।5।।

भावार्थ:-

सतगुरु ने मुझे पूर्ण कृतार्थ कर दिया जीवनमुक्ति कर दिया!! टेक!!

मैं मन के अथवा काल के भवसागर से डूबता उतराता अनादि काल से जन्म मरण के प्रभाव में बह रहा था।
 सदगुरु ने उससे मुझे वैसे ही निकाल दिया जैसे किसी अथाह सागर में डूबते हुए मनुष्य को किसी दयालु पुरूष ने उसका हाथ पकड़कर उसे निकाल दिया हो ।।1।।

संपूर्ण जीवजाति  वासना मनोविकार वस अनंत सागर संसार में भटकता है वासना मनोविकार ही यमराज है उसी के पंजे में पड़े सब जीव दुखी  हैं। सद्गुरु ने मुझे वासना मनोविकार काल रचित प्रपंच के पंजे  से छुड़ा लिया ।।2।।

तिर्ण को तोड़ कर फेंक देना जैसे सरल है वैसे सदगुरु ने ऐसा आत्मबोध दिया कि मानो उन्होंने संसार शक्ति रूपी बंधन को लकरी कि तिनका के समान तोड़ फेका और अविनाशी आत्मा स्थिति की प्रमाणिकता पर मुझे स्थित कर दिया।
 उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर निर्भय कर दिया।।3।।

 सतनाम सुनाकर तथा सत्य स्वरूप सतपुरूष  का बोध देकर ,भक्ति वेश कंठी माला भी पहनाए और अटल न्याय का चिन्ह मेरे मस्तक पर तिलक लगाया।।4।।

 धनी धर्मदास साहेब करबद्ध होकर सद्गुरु से विनम्रता पूर्वक उनका आभार प्रदर्शन करते हैं । हे सद्गुरु आपने मुझे अक्षय ,अमरत्व लोक आत्मालोक ,सत्यलोक में प्रतिष्ठित कर दिया।।5।।

Saturday, 30 December 2017

किसका नाम कबीर ?


किसका नाम कबीर ...

      कवि, समाज सुधारक, उपदेशक, भक्त, दास, धार्मिक नेता, कर्ममार्गी, भक्तिमार्गी, ज्ञानमार्गी, दार्शनिक, रहस्यवादी, गृहस्थ, सन्यासी, आदि...?
     * यदि तर्क की दृष्टि से विचार करे तो पायेंगे की सद्गुरु कबीर साहब इनमें से किसी एकमात्र विश्लेषण या पद के अधिकारी नहीं बल्कि सब कुछ थे, उनके लिए इनमे से कोई भी शब्द इतना साँचा नहीं या पर्याप्त नहीं की कबीर को सीमित किया जा सके ..... डाo श्यामसुंदर शुक्ल
     * आमतौर पर जनमानस, सद्गुरु कबीर साहब को संत या कवि, या कोई विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुआ या जुलाहा के घर मे पालन पोषण होने से जुलाहा जैसा हमारे पाठ्यपुस्तक में भ्रमित जानकारी दी गई हैं पढ़ाया जाता हैं, उतना ही ज्ञात होता है, (पाठ्यपुस्तक को छापने वाले उस विधवा ब्राह्मणी का नाम क्या था उनके नाम भी क्यों नहीं लिखते ) यह धूर्त पाखंडियो की चाल थी,यह तो सर्वविदित है की जिसे ज्ञान से न हरा सको तो बदनाम कर दो, सद्गुरु कबीर साहब ने तो सबसे अधिक पाखण्ड और कर्मकाण्ड पर ही प्रहार किया हैं
     * जिसने सद्गुरु कबीर साहब को जैसा देखा वैसा कह दिया, यह ठीक वैसे ही जैसे किसी विशालकाय हांथी को चार अन्धे से पूछा गया की हांथी कैसा हैं, तो जो अंधा पुंछ पकड़ा वह कह दिया- रस्सी जैसा, पैर पकड़ा वह अंधा कह दिया- खंबे जैसा, पेट को पकड़ा वह अंधा कह दिया- दीवाल जैसा, और कान को पकड़ा वह अंधा कह दिया- सूपा(सुपड़ा) जैसा, और सभी जिद्द कर रहे हैं मै जो कह रहा हु वही सत्य है.
     * सतगुरु कबीर साहब ने अपने परम ज्ञान को कहकर ही समझाया l अपने अनुभैविक ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिए उन्होने “मसि कागज” की आवश्यकता नहीं समझी “मसि कागज छूओ नहीं , कलम गहौ नहीं हाथ” की बात को लेकर कुछ हिन्दी साहित्य के आलोचको ने उन्हे अपढ़ कहने का साहस किया हैं l मसि कागज की आवश्यकता नहीं समझने से सतगुरु कबीर साहब तो अपढ़ नहीं हुए बल्कि उन्हे अपढ़ कहने वाले की समझ की कितनी गहराई हैं – यह बात स्वतः स्पष्ट हो गई l भगवान कृष्ण, बुद्ध, महावीर, जीसस आदि परम ज्ञानी महापुरुषों ने भी मसि कागज की आवश्यकता नहीं समझी थी l आलोचको के विवेकानुसार वे सभी अनपढ़ रहे होंगे – किन्तु ऐसा समझना केवल अपने को ही अनपढ़ होने का दावा सिद्ध करना हैं ..... पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब , आचार्य कबीरपंथ
   * सत्य को निर्भीकता से कहने का नाम ही कबीर है ...पंथ श्री प्रकाशमुनि नाम साहब, आचार्य कबीर पंथ
     * आज विश्वसमुदाय को सद्गुरु कबीर साहब को पूर्ण रूप से देखने की जरूरत है, हम सिर्फ कवि, जुलाहा, आदि मात्र रूप में देखते है तो हम अन्धमात्र हैं
सद्गुरु कबीर साहब ने कहा ही हैं –
मैं किही समझाऊ सब जग अंधा, एक दुई होय तोय समझाऊ,
सब ही भुलाना पेट के धंधा...
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    * जिसने सद्गुरु कबीर साहब को पूर्ण रूप में देखा उन महान संतो ने क्या कहा....
बाजा बाजे रहित का, परा नगर में शोर l
सद्गुरु खसम कबीर हैं, मोहि नजर न आवे और ll ...धनी धर्मदास साहब
बानी अरब न खरब लो , ग्रंथा कोटि हजार l
कर्ता पुरुष कबीर हैं , नाभा किया विचार ll …संत नाभा जी
यक अर्ज गुफ़तम पेश तू, दर गोश कुन करतार l
हक्का कबीर करीम तू वे ऐब परवर दिगार ll ...नानक शाह
साँचा शब्द कबीर का, युग युग अटल अमूल l
दादू पावे पारखू, परम पुरुष निज मूल ll …संत दादू साहब
जपौ रे भाई सद्गुरु नाम कबीर ll …संत मूलकदास जी
कर्ता तुम ही साधू हो, सत कबीर हो देव l
तन मन तुमको अर्पिहौं, कुल दिक्षा मोहि देव ll ...स्वामी रमानन्द
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(सद्गुरु कबीर साहब के इस धरती पर आने का कोई भेद मर्म नहीं समझ पाया)
साहब की वाणी है ....
* अब हम अविगत से चलि आये , कोई भेद मरम न पाये ।।
ना हम जन्मे गर्भ बसेरा , बालक होय दिखलाये ।
काशी शहर जलहि बीच डेरा , तहां जुलाहा पाये ।।
हते विदेह देह धरि आये , काया कबीर कहाये ।
वंश हेत हंसन के कारण , रामानन्द समुझाये ।।
ना मोरे गगन धाम कछु नाहीं, दिसत अगम अपारा।
शब्द स्वरूपी नाम साहब का , सोई नाम हमारा ।।
ना हमरे घर मात पिता है , नाहि हमरे घर दासी ।
जात जुलाहा नाम धराये , जगत कराये हाँसी ।।
ना मोरे हाड़ चाम ना लोहू , हौं सत्यनाम उपासी ।
तारन तरन अभय पद दाता, कहैं कबीर अविनाशी ।।
उपरोक्त भजन / पद में साहेब जी के प्रगट के विषय में सब कुछ स्पष्ट है कि कबीर साहेब ना ही गर्भ से जन्मे है न ही उनकी पत्नी है। उनकी पांच तत्व की देह भी नहीं है और वो स्वयं सत्यपुरुष परमात्मा अविनाशी हैं ।
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 साहेब बंदगी साहेब

Friday, 22 December 2017

सुन्नत नमाज,पूजा, जनेऊ धारण, देवी देवता में विश्वास आदि को निरर्थक बताकर कहीं कबीर साहेब भोतिक वाद की पुष्टि तो नहीं कर रहे है?


सुन्नत
नमाज,पूजा, जनेऊ धारण, देवी देवता में विश्वास आदि को निरर्थक बताकर कहीं कबीर साहेब भोतिक वाद की पुष्टि तो नहीं कर रहे है?

समाधान:- भौतिकवाद जिसे चार्वाक का सिद्धान्त भी कहते हैं, उसमें भोतिक जड तत्वों के अतिरिक्त अन्य किसी शक्ति को नहीं माना गया हैं।भौतिकवाद के अनुसार जीवन मात्र जड तत्वों का संयोग है और कुछ नहीं।जिस प्रकार चकमक और पथरी के घर्षण से आग उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पंच तत्वों के विशेष संयोग से जीव की उत्पत्ति होती है, और तत्वों का संयोग समाप्त होते ही जीव भी समाप्त हो जाता है। उसे न तो पुन: शरीर धारण करना है और न ही मरना है।जब तक जियो मौज मस्ति करो, उधार लेकर घी पिओ।यही है भौतिकवाद।
अब तक के शंका समाधान में जो विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, क्या उनमें कहीं भी जीव अथवा आत्मा का निषेध किया गया है? फिर आपको किस आधार पर यह शंका हुई की सद्गुरू कबीर भौतिकवाद का निरूपण कर रहे हैं।
वस्तुत: आध्यात्मिक आध्यात्मिक क्षैत्र में कोई भी विचार या सिद्धान्त मानने से पूर्व उसे पूर्ण विवेक के साथ सत्य की कसौटी पर कसा जानि चाहिये और जब तक खरा नहीं उतरे, ऊसे स्वीकार नहीं करना चाहिये। इसीलिय सद्गुरू कबीर कहतै हैं कि परखो परखो, बिना परखे किसी की बात को स्वीकार न करो।रमैणी संख्या-40 में सद्गुरू कबीर कहते है की-

आदम आदि सुधि नहीं पाई, मां मां हवा कहां से आई।
तब नहीं होते तुरुक औ हिन्दू, गाय के रुधिर पिता के बिन्दू।
तब नहीं होते गाय कसाई, तब बिसमिल्ला किन फुरमाई।
तब नहीं होते कुल और जाति, दोजख बिहिस्त कौन उत्पाति।
मन मसले की सुधि नहिं जाना, मति भुलान दुई दीन बखाना।
संजोगे का गुण रवे, बिजोगे का गुण जाय।
जिभ्या स्वार्थ कारणे,नर कीन्हे बहुत ऊपाय।।40।।

भावानुवाद:-
नर तूने कैसा मता उपाया।
न्यारे न्यारे ईश उपाये, राम रहीम कहाया।।टेक।।
एक बूंद से सृष्टि रची है, दीन दुई क्यूं गाया।
मां मां हव्वा कहां से आई, आदम जान न पाया।।1।।
हिन्दू तुरुक नहीं जब होते, जाति कुल न बनाया।
गाय कसाई दोऊ नहीं होते, बिस्समिल किन फुरमाया।।2।।
मन मसले की सुधि नहीं पाई, नाहक द्वंद मचाया।
"तारा चंद" निज स्वार्थ कारण, जग झगडा फैलाया।।3।।

भावार्थ;- आदम को स्वयम् अपने जन्म का पता नहीं था और न ही वह जान पाया कि उसकी पत्नि हव्वा कहां से आई? सृष्टि के आदि में जब न तो हिन्दू थे न मुसलमान, और न रज थी न वीर्य।गाय भी नहीं थी, तब बिस्मिल्ला कहकर किसने जीव वध की आज्ञा दी होगी।

उस समय न तो कुल थे और न ही वर्ण व्यवस्था, फिर नरक स्वर्ग 
का निर्धारण किसने किया।वस्तुत: लोग अपनी कल्पित बातों को स्वयं नहीं जान पाये।इसलिए उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी और वे दो दीन की कल्पना कर बैठे।

भौतिक वाद भी ऐसे ही भ्रमित लोगों का ज्ञान है, जो यह मानते है की  आत्मा जीव मात्र पंच तत्वों का संयोग है और उसका वियोग होंने पर जीव गुण समाप्त हो जाता है।इसलिय जीव नाम कोई वस्तु नहीं है।मानव ने अपनी जिभ्या के स्वाद हेतु कई प्रकार की कल्पनाएं कर रखी है।

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Thursday, 21 December 2017

जो खुदाय महजीद बसतु है, और मुलुक केहि केरा । तीरथ मूरत राम निवासी, दुइमा किनहुँ न हेरा ।। कबीर


जो खुदाय महजीद बसतु है, और मुलुक केहि केरा ।
तीरथ मूरत राम निवासी, दुइमा किनहुँ न हेरा ।।

हिन्दू और मुसलमान मंदिर और मस्जिद को लेकर बड़ा लट्ठमलट्ठ करते रहते हैं । ये दोनों कहीं-कहीं कुछ ईंट-पत्थर के रोड़े जोड़ लेते हैं, और इनके ईश्वर वहां आकर जम जाते हैं फिर चाहे उनको लेकर इन्सान के खून की नदी बहे तो भी इनके ईश्वर वहां से नहीं हटते ।

 ये हिन्दू और मुसलमान के ईश्वर और देवी-देवता कितनी सार्वजनिक जमीनों पर, किन्हीं की व्यक्तिगत जमीनों पर, राहों और सड़कों पर ऐसे जमकर बैठते हैं कि मजाल है इन्हें कोई हटा सके । भले जनता को, राहगीरों को कष्ट हो, परंतु ये वहां से नहीं हटेंगे ।

यदि कहीं सरकार इन्हें हटाना चाहे तो धर्म और इस्लाम खतरे में है कहकर नारे लगाये जाते हैं, सरकार की छवि खराब करने का प्रयत्न किया जाता है । कितने ही मंदिर और मस्जिद इन्सानी-दोस्ती की राह में रोड़े ही नहीं खाई और पर्वत बनकर खड़े हो जाते हैं ।

इतना ही नहीं, इनको लेकर मैदाने-जंग में इंसान का खून भी बहने लगता है । ईश्वर और देवता को रहने की जगह न मिलने से ये दयावान हिन्दू और मुसलमान उनके लिए मंदिर और मस्जिद बनाते हैं तब कहीं बेचारे ईश्वर और देवता अपने सिर छिपाने की जगह पाते हैं ।

साहेब कहते हैं कि यदि खुदा मस्जिद में रहता है तो मस्जिद के बाहर के मुल्क में कौन रहता है? क्या उसमें शैतान रहते हैं? और यदि तीर्थ, मंदिर तथा मूर्तियों में ईश्वर तथा देवता रहते हैं तो उनसे बाहर के संसार में कौन रहता है? इतनी-सी अक्ल लोगों में नहीं आ रही है ।

ईश्वर का असली स्थान न हिन्दू खोजते हैं और न मुसलमान खोजते हैं । जो इन्सान से लेकर सूक्ष्म कीट तक के दिलों में बसा है उसे ये मंदिर-मस्जिद की दीवारों के बीच में बन्द कर देना चाहते हैं ।

Tuesday, 19 December 2017

आत्मबोध ,स्व स्वरूपबोध अथवा मोक्ष कि स्थिति क्या है?


आत्मबोध अथवा स्व स्वरूप स्थिति क्या है?
समाधान - यह जीव सांसारिक प्राणी पदार्थों को पाकर उनमें मोह करता है। लेकिन प्रत्यक्ष में देखने पर पता चलता है कि ये सारे प्राणी पदार्थ एक न एक दिन इससे बिछुड जाते है।इसी प्रकार पूर्व में भोगे हुए भोगों का संस्कार इस जीव के अंतःकरण में जमा रहता है और जब जीव को उनका स्मरण होता है तो उन्हें पुनः भोगने की इच्छा करता है परन्तु उनकी पूर्ति न होने पर दुखी होता है। जब जीव को यह बोध हो जाता है कि संसार के समस्त प्राणी पदार्थ मेरे नहीं है, सारे भोग ऐश्वर्य भी एक दिन छूट जायेगे और मात्र में असंग रह जाउंगा, इस स्थिति में अगर यह जीव समस्त प्राणी पदार्थों एवं भोगों से विरक्त होकर अपने आप में स्थित हो जाता है, तो इस स्थिति को स्व स्वरूप स्थिति कहते है। इस स्थिति में यह जीव समस्त कल्पनाओं और विषय वासनाओं से मुक्त होकर सहज स्थिति में आ जाता है।
सद्गुरू कबीर रमेणी संख्या-51में स्व स्वरूप स्थिति के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि -
जाकर नाम अकहुआ रे भाई,
ताकर काह रमैणी गाई।
कहैं तात्पर्य एक ऐसा,
जस पंथी चढि बोहित वैसा।
है कछु रहनि गहनि की बाता,
बैठा रहे चला पुनिः जाता।
रहै बदन नहीं स्वांग सुभाऊ,
मन स्थिर नहीं बोले काहू।
तन राता मन जात है, मन राता तन जाय।
तन मन एकै होय रहे, तब हंस कबीर कहाय।। 51।।
भावानुवाद-
जाकर नाम कथ्यो नहीं जाई।
रंग न रूप वर्ण नहीं जाके, ताकर काह रमैणी गाई।। टेक।।
जैसे पंथी चढे नाव में, खेवन हार न पाई।
बैठा रहै नाव के भीतर, ना कहीं आव न जाई।। 1।।
परमतत्व का भेद निराला, गुण गाये न पाई।
है कछु रहनि गहनि की बाता, सद्गुरू भेद लखाई।। 2।।
जैसी कहै करे पुनिः वैसी, तन मन ऐक रहाई।
"तारा चंद " मिटे दुख सारे, भवसागर तरि जाई।। 3।।
भावार्थ -
हे भाई जिसका नाम ही कथन में नहीं आता है, उसका क्या गुण गाते हो। अज्ञात की प्रार्थना करना तो वैसा औ है, जैसे कोई राहगीर नाव में तो बैठ जाये मगर उसे यह पता ही नहीं हो कि यह नाव कंहा जायेगी और उसका खेवनहार कौन है। वह उसमें बैठा रहे और पुनः उतर कर अपनी राह चल दे।
स्वरूप स्थिति या आत्म शान्ति तो एक रहनि और गहनि की बात है। अगर आचरण शुद्ध है तो जीवन में व्याधियां पैदा ही नहीं होंगी और अगर होगी भी तो स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
जहां तन की आशक्ति होती है वहां मन और जहां मन की आशक्ति होती है वहां तन चला जाता है अर्थात् सारे कर्म तन मन के द्वारा संपन्न होते हैं
जब तन और मन दोनों स्थिर हो जायेगे तो आवागमन अपने आप मिट जायेगा और तब ही यह जीव हंस दशा को प्राप्त होगा।
साहेब बंदगी।

Sunday, 17 December 2017

चादर हो गई बहुत पुरानी, अब तो सोच समझ अभिमानी


चादर हो गई बहुत पुरानी, अब तो सोच समझ अभिमानी ।टेक।


अजब जुलाहा चादर बीनी ,सूत करम की तानी ।

सुरत निरति का भरना दीनीे, तब सबके मन मानी ।।1

मैले दाग पड़े पापन के ,विषयन में लपटानी ।

ज्ञान का साबुन लाय न धोया, सत्संगति का पानी ।।2।।

भई खराब गई अब सारी, लोभ मोह में सानी ।

सारी उमर ओढ़ते बीती , भली बुरी नहीं जानी ।।3।।

शंका मानी जान जिय  अपने , है यह वस्तु बिरानी ।

कहैं  कबीर यहि राखू यतन से , ये फिर  हाथ ना आनी।।4।।

शब्दार्थ :-चादर = शरीर । जुलाहा मन मनवशीजीव । सुरती= मनोवृति । निरति = लिनता ।शंका = संदेह, संशय, भय ।


भावार्थ :- हे जीव।  अनादिकाल से शरीर चादर ओढते ओढते यह बहुत पुरानी हो गई है । इसके ओढने की तेरी तृष्णा अभी भी नहीं मिट रही है । हे मिथ्या देहाभिमानी। अब तो इसकी असारता और दुखरुपता को समझ और इससे छूटने के लिए विचार कर । यह मनवशी जीव अद्भुत जुलाहा है यह कर्मों का सूत कातकर शरीर चादर बनता है।

परंतु किसी को भी संतोष तब होगा जब मन स्थिर होगा जब सूरत निरत का इस शरीर चादर में भरना दिया जाएगा जैसे कपड़ा बुनते समय ताना तान लेने के बाद शुत की आरी आरी भरनी दी जाती है । तब कपड़ा की पूर्णता होती है वैसे ही शरीर धारण की सफलता तब होती है जब सूरति स्वरूप में लीन होती है । सुरति निरति का भरना देना सही है। सूरति आत्मा में निरत हो, लीन हो तब शरीर चादर की सफलता है।

 इस शरीर तथा मन की चादर में विषयासक्तिजनित  पाप एवं मलिनता के दाग लगे हैं , क्योंकि हम सदैव से विषयों में ही लिपटे रहे। हमारी यह भयंकर असावधानी रही है कि हम स्वरूप आत्मज्ञान रूपी साबुन सद्गुरु से लेकर सत्संग के पानी में उसे नहीं धोए।

 यह शरीर चादर खराब होती गई काम क्रोध लोभ आदि में सनकर यह पूरी की पूरी चौपट हो गई है।

 आदमी इतना दम व्यामोहित है कि पूरी उम्र इस शरीर  चादर को ओढते बित जाती है। किंतु वह नहीं समझ पाता कि अच्छा क्या है? और बुरा क्या है? कल्याण क्या है ? अकल्याण क्या है? जीव की अशांति कैसे मीलती है? और शांति कैसे मिलेगी?

 हृदय में यह पक्का समझ लो कि यह शरीर चादर तुम्हारी अपनी नहीं है । यह विजाती है ,नशवान है ,इसलिए सावधान हो जाओ।

 सदगुरु कबीर साहेब कहते हैं कि हे जीव इसको साधना से संयमित रखो तो , शांति का मीठा फल मिलेगा। और जीव को चेताते हुए  कहते हैं  की खबरदार यह आजकल में खो जाएगा फिर हाथ लगने वाली नहीं है ।

विशेष:-- यह स्वस्थ शरीर और यह प्रकृति की सुविधाएं आजकल में छिन जाने वाले हैं । इसलिय शीघ्र किसी सच्चे सद्गुरु  के  पास  जाकर अपने मन इंद्रियों पर संयम कर अपना कल्याण कर लेना चाहिए


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गुरु मोहिं सजीवन मूर दई :- धनि धरमदास साहेब

गुरु मोहिं सजीवन मूर दई ।।टेक।। कान लागी गुरु दीक्षा दिन्हीं । जनम-जनम को मोल लई।।1।। दिन दिन अवगुण छुटन लागे । बाढन लागी प्रीति न...