गुरु मोहिं खूब निहाल कियो। टेक।
बूरत जात रहे भवसागर पकड़ी के बांहि लियो।।1।।
14 लोक बसे जम चोदह उन्हों से छोरि लियो।।2।।
तिनूका तोरि दिलों परवाना माथे हाथं दियो।।3।।
नाम सुना दियो कंठी माला, माथे तिलक दियो।।4।।
धर्मदास बिनवै कर जोरी ,पूरा लोक दियो।।5।।
भावार्थ:-
सतगुरु ने मुझे पूर्ण कृतार्थ कर दिया जीवनमुक्ति कर दिया!! टेक!!
मैं मन के अथवा काल के भवसागर से डूबता उतराता अनादि काल से जन्म मरण के प्रभाव में बह रहा था।
सदगुरु ने उससे मुझे वैसे ही निकाल दिया जैसे किसी अथाह सागर में डूबते हुए मनुष्य को किसी दयालु पुरूष ने उसका हाथ पकड़कर उसे निकाल दिया हो ।।1।।
संपूर्ण जीवजाति वासना मनोविकार वस अनंत सागर संसार में भटकता है वासना मनोविकार ही यमराज है उसी के पंजे में पड़े सब जीव दुखी हैं। सद्गुरु ने मुझे वासना मनोविकार काल रचित प्रपंच के पंजे से छुड़ा लिया ।।2।।
तिर्ण को तोड़ कर फेंक देना जैसे सरल है वैसे सदगुरु ने ऐसा आत्मबोध दिया कि मानो उन्होंने संसार शक्ति रूपी बंधन को लकरी कि तिनका के समान तोड़ फेका और अविनाशी आत्मा स्थिति की प्रमाणिकता पर मुझे स्थित कर दिया।
उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर निर्भय कर दिया।।3।।
सतनाम सुनाकर तथा सत्य स्वरूप सतपुरूष का बोध देकर ,भक्ति वेश कंठी माला भी पहनाए और अटल न्याय का चिन्ह मेरे मस्तक पर तिलक लगाया।।4।।
धनी धर्मदास साहेब करबद्ध होकर सद्गुरु से विनम्रता पूर्वक उनका आभार प्रदर्शन करते हैं । हे सद्गुरु आपने मुझे अक्षय ,अमरत्व लोक आत्मालोक ,सत्यलोक में प्रतिष्ठित कर दिया।।5।।
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